दोस्ती का मंत्र !!
आपने सुना होगा किताबें सबसे अच्छी दोस्त होती हैं परन्तु क्या आपने कभी यह जानने की कोशिश की है कि उन्हें सबसे अच्छा दोस्त क्यूँ कहा जाता है…? जब आप किताबें पढ़ते हैं तब आप स्वयं के साथ समय बिताते हैं और स्वयं के विकास पर ध्यान देते हैं! इस प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में जीवनशैली अत्यंत व्यस्त हो गयी है और इंसान खुद के स्वास्थ्य, सोच, व्यवहार और कर्मों पर विचार करने के लिए समय ही नहीं निकाल पाता है. ऐसे में किताबें ना सिर्फ उसे स्वयं के साथ बिताने के लिए समय देती हैं और सोच को विकसित करने के लिए मज़बूत आधार और तथ्य भी देती हैं बल्कि खुद से दोस्ती करने का समय भी देती हैं.
स्वयं से दोस्ती करना सर्वाधिक ज़रूरी है और जो इंसान खुद से दोस्ती कर अपने स्वास्थ्य, सोच, व्यवहार और कर्मों के प्रति समर्पित हो जाता है वही सफल हो सकता है एवं वही दूसरों के साथ भी दोस्ती निभा सकता है.
स्वास्थ्य से दोस्ती – अपने स्वास्थ्य पर ध्यान दें! निरोगी काया ही ज़िंदगी का सबसे बड़ा सुख है. और जो इंसान रोगों से ग्रस्त होता है वो किसी के साथ भी दोस्ती पूरी तरह नहीं निभा सकता. ज़िंदगी कितनी भी व्यस्त क्यूँ न हो जाए, व्यायाम करने के लिए दिन में आधा घंटा ज़रूर निकालें!
सोच से दोस्ती – सोच को विकसित करने के लिए स्वयं के साथ समय व्यतीत करना अत्यंत आवश्यक है. दोस्ती का सबसे महत्वपूर्ण आधार होती है सोच, ज़रूरी नहीं है कि दो लोगों की सोच मिले तभी वो अच्छे दोस्त हों, लेकिन सोच का स्तर मिलना ज़रूरी होता है. स्वयं के साथ अनेक विषयों पर गहन चिंतन कर सोच को विकसित किया जा सकता है और किताबों को अवश्य पढ़ें उनसे सोच का विस्तार होता है.
व्यवहार से दोस्ती – ऐसा कहा जाता है कि आपका व्यवहार ही आपके साथ जाता है. व्यवहार दोस्त बनाने में ही नहीं बल्कि दोस्ती निभाने में भी मुख्य भूमिका निभाता है. और व्यवहार को संतुलित रखने के लिए एवं समय-समय पर स्वयं का मूल्यांकन करने के लिए खुद के साथ समय बिताना अनिवार्य है. कई बार कुछ छोटे-बड़े विवादों में हमें स्वयं कि गलती नहीं दिखाई देती परन्तु आत्म-मूल्यांकन करने पर पूरी स्थिति साफ़ हो जाती है और अच्छी दोस्ती के लिए यह मूलभूत आधार है. अपने व्यवहार को जानें और उसे नियंत्रित करने की दिशा में कदम उठाएं.
कर्मों से दोस्ती – ‘कर भला तो हो भला’ यह तो आप सभी ने सुना होगा. जो इंसान पूरी इमानदारी और निष्ठा से काम करता है एवं कर्म करते वक्त किसी और से नहीं, बल्कि खुद से दोस्ती निभाता है वही इंसान तरक्की कर सकता है. दोस्ती में भी यह बहुत ज़रूरी होता है कि वचन के साथ-साथ कर्मों से भी दोस्ती निभाई जाए और निर्मल मन से बिना किसी अपेक्षा के साथ रिश्ता रखा जाए.
मैं सबसे पहले स्वयं से दोस्ती करने और निभाने में विश्वास रखता हूँ और इसलिए शायद अपने रिश्तों को भी पूरे समर्पण से निभा पता हूँ. आशा है आप भी इस ‘दोस्ती के मंत्र’ को याद रखेंगे और रिश्तों को बेहतर रूप से समझने कि नीव तैयार करेंगे!