हिन्दी पत्रकारिता में श्रेष्ठ स्थान रखने वाला – “पत्रकारिता का विश्वविद्यालय” कहलाने वाला समाचार-पत्र ‘नईदुनिया’ के प्रबंधन का बदल जाना क्या यह एक महज व्यावसायिक घटना या व्यापारिक समझौता है? क्या हम सिर्फ एक पाठक हैं या हमारा भी कुछ हक़ है?
प्रबंधन ही वास्तव में हर प्रकार से जवाबदार है किसी भी निर्णय के लिए…फिर मेरे जैसे सामान्य पाठक को नईदुनिया के इन्दौरियन प्रबंधकों के बदलने का दुःख क्यूँ हो रहा है?
…क्यूंकि नईदुनिया एक समाचार-पत्र ही नहीं बल्कि एक आदत है और इसको पढ़े बिना ऐसा लगता है कि शायद सुबह ही नहीं हुई. भाषा के संस्कार, सामाजिक सरोकार, सांस्कृतिक परम्पराएँ और पत्रकारिता के सिद्धांत ‘नईदुनिया’ की पहचान रहे हैं. आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की हत्या और श्रीमती इन्द्राजी की तानाशाही के खिलाफ सम्पादकीय पृष्ठ को खाली छोड़ देना पत्रकारिता का बिरले उदाहरण था.
श्री राहुल बाबा, प्रभाषजी जोशी से लेकर रज्जू बाबू तक कालजयी सम्पादक देने वाला समाचार-पत्र नईदुनिया वर्तमान समय में श्री आलोक मेहता, श्री श्रवण गर्ग, श्री वेदप्रताप वैदिक, श्री उमेश त्रिवेदी, श्री राजेश बादल, श्री प्रकाश पुरोहित, श्री प्रकाश हिन्दुस्तानी, श्री अनुराग पटेरिया, श्री राजेश सिरोठिया, श्री आनंद पाण्डे जैसे अनेक पत्रकारों को जन्म देने वाला विश्वविद्यालय क्या बाज़ारी शक्तियों का शिकार हो गया?
क्या इस बाज़ार वाद में हम अपनी मालव माटी व निमाड़ माटी की खुशबू नईदुनिया में महसूस कर पाएंगे? कहीं पीतपत्रकारिता और पैड न्यूज़ का हथियार तो नहीं बन जायेगा यह भी…? मन में चिंता है…पीड़ा है…प्रश्न है…और अपेक्षा है नए प्रबंधन से.