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स्वामी विवेकानंद-सनातन संस्कृति और भारतीय दर्शन के शलाका पुरुष

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स्वामी विवेकानंद: भारतीय संस्कृति के वैश्विक संदेशवाहक

स्वामी विवेकानंद एक महान संन्यासी, समाज सुधारक, और भारतीय संस्कृति के अमर संदेशवाहक थे। उन्होंने न केवल युवाओं को प्रेरित किया, बल्कि फिरंगी शासन के दौरान भारत की छवि को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया। उनके विचारों की गहराई और व्यापकता ने दुनिया भर के विद्वानों, दार्शनिकों, संतों, और विभिन्न धर्मों और समाजों से जुड़े लोगों को प्रभावित किया। अपने विचारों के माध्यम से एक आदर्श विश्व व्यवस्था की परिकल्पना प्रस्तुत की, जो आज भी प्रासंगिक है। उनकी वक्तृत्व कला इतनी प्रभावशाली थी कि उनके ओजस्वी भाषणों ने दुनिया भर में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

शिकागो धर्म महासभा और “विश्व बंधुत्व” का संदेश

1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने सनातन संस्कृति और भारतीय दर्शन का परिचय देकर विश्व को चकित कर दिया। उनके छोटे लेकिन प्रभावशाली भाषण ने सभागार में मौजूद लोगों के हृदय को गहराई से छुआ और भारत के आध्यात्मिक गौरव को वैश्विक पटल पर स्थापित किया। उनकी विचारधारा में “विश्व बंधुत्व” का मंत्र स्पष्ट रूप से झलकता था, वे समस्त मानवता को एक परिवार के रूप में देखते थे । उनके विचार आज भी युवाओं और समाज को एक शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य के निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं

स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

अपने तथ्यात्मक और ओजस्वी विचारों से सनातन संस्कृति की ख्याति को विश्व स्तर पर फैलाने वाले महान संत और विचारक स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में एक समृद्ध बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जिन्हें परिवार और मित्रों के बीच नरेन के नाम से भी जाना जाता था। विवेकानंद जी की प्रारंभिक शिक्षा एक पश्चिमी शैली के विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ उन्होंने पश्चिमी दर्शन, ईसाई धर्म और विज्ञान का अध्ययन किया। हालांकि, इन विचारों के संपर्क में आने के बावजूद उनकी गहरी आस्था सनातन संस्कृति में बनी रही। उन्होंने हिंदू धर्म का गहन अध्ययन किया और उसमें व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने समाज सुधार और इन बुराइयों के उन्मूलन का दृढ़ संकल्प लिया।

परिवार का प्रभाव और संन्यास की ओर अग्रसरता

स्वामी विवेकानंद के जीवन पर उनके माता-पिता का गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने उन्हें आध्यात्मिकता और धार्मिकता की प्रेरणा दी, जबकि उनके पिता विश्वनाथ दत्त, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक प्रख्यात वकील थे, उन्होंने विवेकानंद जी को आधुनिक दृष्टिकोण और तर्कशीलता का पाठ पढ़ाया। उनके दादा दुर्गाचरण दत्त, जो संस्कृत और फारसी के विद्वान थे, उन्होंने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। 1884 में पिता के असामयिक निधन के बाद, परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन संघर्षों के बीच भी उन्होंने अपने विचारों और आध्यात्मिक पथ को नहीं छोड़ा। उनका  अध्यात्म की ओर झुकाव किशोरावस्था से ही स्पष्ट था, और युवा अवस्था में उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। उनके विचार, दर्शन, और जीवन दृष्टि ने न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व को एक नई दिशा प्रदान की।

स्वामी विवेकानंद का बहुआयामी व्यक्तित्व और शिक्षा

विवेकानंद जी को संगीत, साहित्य और दर्शन में गहरी रुचि थी। उनके शौक में तैराकी, कुश्ती और घुड़सवारी जैसे खेल शामिल थे, जो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उजागर करते हैं। मात्र 25 वर्ष की आयु तक उन्होंने प्रमुख धर्म ग्रंथों के साथ-साथ अर्थशास्त्र, दर्शन और राजनीति का भी गहन अध्ययन कर लिया था। हालांकि, इस व्यापक अध्ययन और विभिन्न विचारधाराओं तथा धर्मों के संपर्क ने उनके मन में कई संदेह और उलझनें भी उत्पन्न कर दीं।

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिवर्तन और रामकृष्ण परमहंस से मार्गदर्शन

स्वामी विवेकानंद अपने तार्किक दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध थे। ज्ञान और शांति की तलाश में नरेंद्रनाथ दत्त ने कई साधु-संतों और धार्मिक संस्थाओं की शरण ली, लेकिन उनकी आध्यात्मिक यात्रा तब पूरी हुई जब वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले। उन्होंने विवेकानंद जी को समझाया, ‘बुद्धि के बल पर खुद को बुद्धिमान समझते रहोगे, समर्पण का मार्ग अपनाओ, तभी सत्य का साक्षात्कार होगा।’ इन शब्दों का विवेकानंद पर गहरा असर पड़ा, और उन्होंने खुद को गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। 1881 में उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा ली, और यहीं से उनके जीवन ने नया मोड़ लिया। यही वह क्षण था जब नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद बन गए।

शिकागो धर्म महासभा और पश्चिमी जगत में भारतीय संस्कृति का प्रचार

1886 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के देहावसान के बाद, स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने पैदल पूरे भारत का भ्रमण किया और समाज की वास्तविकता, गरीबी, और असमानता को करीब से देखा। इन अनुभवों ने उनके विचारों को गहरा और उद्देश्यपूर्ण बना दिया। 1893 में उन्होंने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया। हालांकि, कुछ विरोधी तत्वों ने मंच पर उनके बोलने में बाधा डालने की कोशिश की, लेकिन एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें सभा को संबोधित करने का अवसर मिला। विवेकानंद जी ने अपने ऐतिहासिक भाषण की शुरुआत “भाइयों और बहनों” के संबोधन से की, जिसने सभागार में उपस्थित लोगों के हृदयों को छू लिया। इस भाषण ने न केवल सनातन संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाई, बल्कि उन्हें विश्व मंच पर अमर बना दिया।

शिकागो सम्मेलन के बाद विवेकानंद जी तीन वर्षों तक अमेरिका में रहे, जहां उन्होंने भारतीय धर्म, दर्शन और योग-वेदांत का प्रचार किया। इस दौरान उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाओं की स्थापना की, जिससे भारतीय अध्यात्म और सनातन संस्कृति पश्चिमी जगत में पहुंची। 1899 में उन्होंने फिर से पश्चिम की यात्रा की और वहां के लोगों को भारतीय संस्कृति और पौराणिक अध्यात्म का ज्ञान प्रदान किया।योग-वेदांत को पश्चिमी देशों में परिचित कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। उन्होंने भारतीय आध्यात्मिकता और पश्चिमी भौतिक प्रगति को एक-दूसरे के पूरक मानते हुए दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया।

4 जुलाई 1902 को, मात्र 39 वर्ष की आयु में, विवेकानंद जी ध्यान करते हुए चिर निद्रा में लीन हो गए। उनके शिष्यों के अनुसार, उन्होंने महासमाधि ली थी। आज, एक सदी से भी अधिक समय बाद, उनके विचार युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं और भारतीय दर्शन की उनकी प्रज्वलित की गई ज्योति से भारत का आध्यात्मिक जगत आलोकित है।