Kailash Vijayvargiya blogs news Archives - Kailash Vijayvargiya Blog
kailash vijayvargiya kailash vijayvargiya
Nadda ji

राष्ट्रीय युवा दिवस 2025: स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से युवा सशक्तिकरण

राष्ट्रीय युवा दिवस, जो हर साल 12 जनवरी को स्वामी विवेकानंद की जयंती के रूप में मनाया जाता है, यह दिन युवाओं के सशक्तिकरण और उनके विकास के लिए महत्वपूर्ण है। इस दिन से प्रेरणा लेकर, हम अपने युवा समाज को प्रोत्साहित कर सकते हैं। इस लेख में हम राष्ट्रीय युवा दिवस 2025 के महत्व और युवा सशक्तिकरण पर चर्चा करेंगे।

स्वामी विवेकानंद का युवा दृष्टिकोण

विवेकानंद जी ने हमेशा युवाओं को आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास और कर्मठता का पालन करने के लिए प्रेरित किया। उनका मानना था कि युवा समाज का सबसे शक्तिशाली बल होते हैं और उनके पास अनंत संभावनाएं होती हैं। उनका प्रसिद्ध उद्धरण था, उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।” यह संदेश आज के युवा वर्ग के लिए न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि यह उन्हें अपने जीवन के उद्देश्य को समझने और उस पर केंद्रित रहने की प्रेरणा भी देता है।

युवा सशक्तिकरण का महत्व

आज के समय में, युवा सशक्तिकरण एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन चुका है। राष्ट्रीय युवा दिवस 2025 पर, हमें यह समझने की आवश्यकता है कि सशक्त युवा न केवल अपने जीवन में सफलता प्राप्त करता है, बल्कि वह समाज और राष्ट्र के विकास में भी योगदान देता है। आज के युवाओं को कई अवसर मिल रहे हैं, लेकिन साथ ही उन्हें चुनौतियों का भी सामना करना पड़ता है।

स्वामी विवेकानंद का संदेश यह था कि युवा अगर अपनी आंतरिक शक्तियों को पहचान लें, तो वे न केवल अपनी व्यक्तिगत सफलता प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। इस दृष्टिकोण से, युवा सशक्तिकरण केवल व्यक्तिगत विकास का नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र के समग्र विकास का भी मार्ग प्रशस्त करता है।

भारतीय संस्कृति और आधुनिकता का संतुलन

स्वामी विवेकानंद ने भारतीय संस्कृति के महत्व को स्वीकारते हुए कहा कि हमें अपनी सांस्कृतिक धरोहर को सहेजने की आवश्यकता है। उन्होंने युवाओं को यह बताया कि आधुनिकता के साथ-साथ अपनी भारतीय संस्कृति की नींव को मजबूत करना आवश्यक है। उन्होंने कहा, “हमारी संस्कृति में वह ताकत है, जो दुनिया को प्रभावित कर सकती है।”

राष्ट्रीय युवा दिवस 2025 के अवसर पर हम अपने युवाओं को यह सिखाएं कि वे अपनी भारतीय पहचान और संस्कृति को न भूलें, बल्कि आधुनिकता के साथ उसका समन्वय करें। यदि युवा अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़े रहेंगे, तो वे जीवन में संतुलन और सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

स्वामी विवेकानंद के विचारों का अनुसरण

विवेकानंद जी का जीवन और विचार आज भी प्रासंगिक हैं। शिक्षाओं के अनुसार, जीवन में सफलता पाने के लिए केवल बाहरी साधनों की नहीं, बल्कि आंतरिक शक्तियों और आत्मविश्वास की आवश्यकता होती है। विचारों का अनुसरण करके हम न केवल अपने जीवन को सुधार सकते हैं, बल्कि समाज में भी सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं। यह दृष्टिकोण आज के युवाओं के लिए मार्गदर्शक है। अगर युवा अपने जीवन में आदर्शों का पालन करेंगे, तो वे न केवल आत्मनिर्भर बनेंगे, बल्कि समाज में भी अपने योगदान से महत्वपूर्ण परिवर्तन ला सकेंगे। राष्ट्रीय युवा दिवस 2025 पर, हम सभी को जीवन और विचारों से प्रेरित होकर अपने जीवन को बेहतर बनाने और समाज के लिए योगदान देने का संकल्प लेना चाहिए।

कैलाश विजयवर्गीय जी ने भी हमेशा स्वामी विवेकानंद के विचारों का समर्थन किया और उन्हें युवाओं के लिए एक आदर्श बताया है। उनका मानना है कि अगर आज के युवा अपने जीवन में उनके सिद्धांतों को आत्मसात करें, तो वे न केवल व्यक्तिगत रूप से सफल हो सकते हैं, बल्कि राष्ट्र के समग्र विकास में भी योगदान कर सकते हैं। विवेकानंद जी के विचार और संदेश आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने उनके समय में थे। उनके आदर्शों पर चलने के लिए हमारी युवा पीढ़ी को प्रेरित करना अत्यंत आवश्यक है, क्योंकि एक सशक्त और जागरूक युवा ही समाज की असली ताकत है। यही उनका सपना था।

युवाओं के लिए अंतिम संदेश

आइए, इस राष्ट्रीय युवा दिवस पर हम संकल्प लें कि हम उनके विचारों से प्रेरित होकर न केवल अपने जीवन में सफलता प्राप्त करेंगे, बल्कि समाज में सकारात्मक बदलाव लाने के लिए भी प्रयास करेंगे। विवेकानंद जी के आदर्शों का अनुसरण करते हुए, अपने परिवार और समाज का मान बनाए रखें। अपने आचरण से माँ, भारत माता, और अपने देश को शर्मसार न करें। यही सच्चा विकास और प्रगति का मार्ग है।

स्वामी विवेकानंद-सनातन संस्कृति और भारतीय दर्शन के शलाका पुरुष

स्वामी विवेकानंद: भारतीय संस्कृति के वैश्विक संदेशवाहक

स्वामी विवेकानंद एक महान संन्यासी, समाज सुधारक, और भारतीय संस्कृति के अमर संदेशवाहक थे। उन्होंने न केवल युवाओं को प्रेरित किया, बल्कि फिरंगी शासन के दौरान भारत की छवि को वैश्विक मंच पर प्रतिष्ठित किया। उनके विचारों की गहराई और व्यापकता ने दुनिया भर के विद्वानों, दार्शनिकों, संतों, और विभिन्न धर्मों और समाजों से जुड़े लोगों को प्रभावित किया। अपने विचारों के माध्यम से एक आदर्श विश्व व्यवस्था की परिकल्पना प्रस्तुत की, जो आज भी प्रासंगिक है। उनकी वक्तृत्व कला इतनी प्रभावशाली थी कि उनके ओजस्वी भाषणों ने दुनिया भर में श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर दिया।

शिकागो धर्म महासभा और “विश्व बंधुत्व” का संदेश

1893 में शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में स्वामी विवेकानंद ने सनातन संस्कृति और भारतीय दर्शन का परिचय देकर विश्व को चकित कर दिया। उनके छोटे लेकिन प्रभावशाली भाषण ने सभागार में मौजूद लोगों के हृदय को गहराई से छुआ और भारत के आध्यात्मिक गौरव को वैश्विक पटल पर स्थापित किया। उनकी विचारधारा में “विश्व बंधुत्व” का मंत्र स्पष्ट रूप से झलकता था, वे समस्त मानवता को एक परिवार के रूप में देखते थे । उनके विचार आज भी युवाओं और समाज को एक शांतिपूर्ण और समृद्ध भविष्य के निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं

स्वामी विवेकानंद का प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

अपने तथ्यात्मक और ओजस्वी विचारों से सनातन संस्कृति की ख्याति को विश्व स्तर पर फैलाने वाले महान संत और विचारक स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को कोलकाता में एक समृद्ध बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था। उनका मूल नाम नरेंद्रनाथ दत्त था, जिन्हें परिवार और मित्रों के बीच नरेन के नाम से भी जाना जाता था। विवेकानंद जी की प्रारंभिक शिक्षा एक पश्चिमी शैली के विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ उन्होंने पश्चिमी दर्शन, ईसाई धर्म और विज्ञान का अध्ययन किया। हालांकि, इन विचारों के संपर्क में आने के बावजूद उनकी गहरी आस्था सनातन संस्कृति में बनी रही। उन्होंने हिंदू धर्म का गहन अध्ययन किया और उसमें व्याप्त कुरीतियों और बुराइयों के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने समाज सुधार और इन बुराइयों के उन्मूलन का दृढ़ संकल्प लिया।

परिवार का प्रभाव और संन्यास की ओर अग्रसरता

स्वामी विवेकानंद के जीवन पर उनके माता-पिता का गहरा प्रभाव पड़ा। उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने उन्हें आध्यात्मिकता और धार्मिकता की प्रेरणा दी, जबकि उनके पिता विश्वनाथ दत्त, जो कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक प्रख्यात वकील थे, उन्होंने विवेकानंद जी को आधुनिक दृष्टिकोण और तर्कशीलता का पाठ पढ़ाया। उनके दादा दुर्गाचरण दत्त, जो संस्कृत और फारसी के विद्वान थे, उन्होंने 25 वर्ष की आयु में ही संन्यास ले लिया था। 1884 में पिता के असामयिक निधन के बाद, परिवार को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इन संघर्षों के बीच भी उन्होंने अपने विचारों और आध्यात्मिक पथ को नहीं छोड़ा। उनका  अध्यात्म की ओर झुकाव किशोरावस्था से ही स्पष्ट था, और युवा अवस्था में उन्होंने संन्यास धारण कर लिया। उनके विचार, दर्शन, और जीवन दृष्टि ने न केवल भारत, बल्कि पूरे विश्व को एक नई दिशा प्रदान की।

स्वामी विवेकानंद का बहुआयामी व्यक्तित्व और शिक्षा

विवेकानंद जी को संगीत, साहित्य और दर्शन में गहरी रुचि थी। उनके शौक में तैराकी, कुश्ती और घुड़सवारी जैसे खेल शामिल थे, जो उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को उजागर करते हैं। मात्र 25 वर्ष की आयु तक उन्होंने प्रमुख धर्म ग्रंथों के साथ-साथ अर्थशास्त्र, दर्शन और राजनीति का भी गहन अध्ययन कर लिया था। हालांकि, इस व्यापक अध्ययन और विभिन्न विचारधाराओं तथा धर्मों के संपर्क ने उनके मन में कई संदेह और उलझनें भी उत्पन्न कर दीं।

स्वामी विवेकानंद का जीवन परिवर्तन और रामकृष्ण परमहंस से मार्गदर्शन

स्वामी विवेकानंद अपने तार्किक दृष्टिकोण के लिए प्रसिद्ध थे। ज्ञान और शांति की तलाश में नरेंद्रनाथ दत्त ने कई साधु-संतों और धार्मिक संस्थाओं की शरण ली, लेकिन उनकी आध्यात्मिक यात्रा तब पूरी हुई जब वे स्वामी रामकृष्ण परमहंस से मिले। उन्होंने विवेकानंद जी को समझाया, ‘बुद्धि के बल पर खुद को बुद्धिमान समझते रहोगे, समर्पण का मार्ग अपनाओ, तभी सत्य का साक्षात्कार होगा।’ इन शब्दों का विवेकानंद पर गहरा असर पड़ा, और उन्होंने खुद को गुरु के चरणों में समर्पित कर दिया। 1881 में उन्होंने रामकृष्ण परमहंस से दीक्षा ली, और यहीं से उनके जीवन ने नया मोड़ लिया। यही वह क्षण था जब नरेंद्रनाथ दत्त स्वामी विवेकानंद बन गए।

शिकागो धर्म महासभा और पश्चिमी जगत में भारतीय संस्कृति का प्रचार

1886 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस के देहावसान के बाद, स्वामी विवेकानंद भारत भ्रमण पर निकल पड़े। उन्होंने पैदल पूरे भारत का भ्रमण किया और समाज की वास्तविकता, गरीबी, और असमानता को करीब से देखा। इन अनुभवों ने उनके विचारों को गहरा और उद्देश्यपूर्ण बना दिया। 1893 में उन्होंने शिकागो में आयोजित विश्व धर्म महासभा में भारत का प्रतिनिधित्व किया। हालांकि, कुछ विरोधी तत्वों ने मंच पर उनके बोलने में बाधा डालने की कोशिश की, लेकिन एक अमेरिकी प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें सभा को संबोधित करने का अवसर मिला। विवेकानंद जी ने अपने ऐतिहासिक भाषण की शुरुआत “भाइयों और बहनों” के संबोधन से की, जिसने सभागार में उपस्थित लोगों के हृदयों को छू लिया। इस भाषण ने न केवल सनातन संस्कृति को वैश्विक पहचान दिलाई, बल्कि उन्हें विश्व मंच पर अमर बना दिया।

शिकागो सम्मेलन के बाद विवेकानंद जी तीन वर्षों तक अमेरिका में रहे, जहां उन्होंने भारतीय धर्म, दर्शन और योग-वेदांत का प्रचार किया। इस दौरान उन्होंने रामकृष्ण मिशन की कई शाखाओं की स्थापना की, जिससे भारतीय अध्यात्म और सनातन संस्कृति पश्चिमी जगत में पहुंची। 1899 में उन्होंने फिर से पश्चिम की यात्रा की और वहां के लोगों को भारतीय संस्कृति और पौराणिक अध्यात्म का ज्ञान प्रदान किया।योग-वेदांत को पश्चिमी देशों में परिचित कराने का श्रेय स्वामी विवेकानंद को ही जाता है। उन्होंने भारतीय आध्यात्मिकता और पश्चिमी भौतिक प्रगति को एक-दूसरे के पूरक मानते हुए दोनों के बीच संतुलन स्थापित करने का प्रयास किया।

4 जुलाई 1902 को, मात्र 39 वर्ष की आयु में, विवेकानंद जी ध्यान करते हुए चिर निद्रा में लीन हो गए। उनके शिष्यों के अनुसार, उन्होंने महासमाधि ली थी। आज, एक सदी से भी अधिक समय बाद, उनके विचार युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं और भारतीय दर्शन की उनकी प्रज्वलित की गई ज्योति से भारत का आध्यात्मिक जगत आलोकित है।