Kailash Vijayvargiya blogs Ek Saath Chunaav: The Need for Simultaneous Elections - Kailash Vijayvargiya, Cabinet Minister of Madhya Pradesh (BJP)
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Ek saath chunaav kee jaroorat

एक साथ चुनाव की जरूरत

मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की विधानसभाओं के चुनाव की तैयारियों के मद्देनजर ज्यादातर राजनीतिक दल चुनावी मोड में हैं। इन तीन विधानसभा चुनावों के बाद देश एक बार फिर जल्दी ही लोकसभा के लिए चुनावी मोड में होगा। अगले वर्ष सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना, ओडिसा और आंध्र प्रदेश विधानसभाओं के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होंगे। अगले वर्ष ही कुछ समय बाद हरियाणा और महाराष्ट्र की विधानसभाओं के चुनाव होंगे। 2020 में झारखंड, दिल्ली और बिहार में विधानसभा के चुनाव होंगे। 2021 में जम्मू-कश्मीर,असम, केरल, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल और पुद्दूचेरी में विधानसभाओँ के चुनाव होंगे। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों के अलावा सभी राज्यों में स्थानीय निकायों के चुनाव भी होगें। यानी हर दो-तीन महीने बाद देश चुनावी मोड में होगा, सरकारें साइलेंट मोड में होंगी और नौकरशाही फ्लाइट मोड में चलेगी। ऐसी स्थिति से बचाने के लिए लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के विचार पर देश में बहस छेड़ी गई है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष श्री अमित शाह ने इसी मुद्दे पर विधि आयोग को एक पत्र सौंपा है। इस पत्र में उन्होंने महाराष्ट्र का उदाहरण देते हुए लिखा है वहां 365 दिनों में से 307 दिनों तक चुनावों के कारण आचार संहिता लगी रही। इस कारण विकास कार्यों में रुकावट आई और ऐसी स्थिति कई राज्यों में रही। श्री शाह ने सुझाव दिया है कि एक साथ चुनाव कराने से प्रशासनिक व्यय में कमी आएगी और विकास कार्यों में तेजी आएगी। साथ ही राजनीतिक दलों के चुनावी खर्च में भी कमी आएगी।

लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव नया नहीं है। देश में 1952, 1957, 1962 और 1967  के आम चुनावों के साथ ही विधानसभाओं के चुनाव होते रहे हैं। 1967 के लोकसभा चुनाव के साथ हुए विधानसभा चुनावों में बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, पंजाब, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु और केरल में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिला था। आठ विधानसभाओं में पहली बार विपक्ष की संविद सरकारें बनीं। 1967 से पहले देश में गैर कांग्रेसवाद का नारा बुलंद हुआ था। विपक्ष ने मिलजुलकर कांग्रेस को बहुमत नहीं मिलने दिया। संयुक्त विपक्ष की सरकारें ज्यादा समय तक नहीं चल पाईं तो मध्यावधि चुनाव की शुरुआत हुई। 1969 में कांग्रेस टूटने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा देते हुए लोकसभा चुनाव समय से पहले कराने का फैसला लिया और 1971 में पांचवीं लोकसभा के चुनाव हुए। इस तरह लोकसभा के साथ विधानसभा चुनाव कराने की परम्परा समाप्त हो गई। इंदिरा कांग्रेस को लोकसभा चुनाव में जबरदस्त बहुमत मिला तो 18 विधानसभाओं को भंग करके मध्यावधि चुनाव कराए गए। 1977 में लोकसभा चुनाव में जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद कई राज्यों की विधानसभाओं को भंग करके चुनाव कराए गए। 1980 में जनता पार्टी के विघटन और इंदिरा गांधी की सत्ता में वापसी के बाद फिर से विधानसभाओं को भंग करके चुनाव कराए गए। इस स्थिति में एक साथ चुनाव का कराने का सबसे पहले चुनाव आयोग ने 1983 में सुझाव दिया। 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया। समय-समय पर कुछ राजनीतिज्ञ भी एक साथ चुनाव कराने का सुझाव देते रहे। 2003 में तत्कालीन उपप्रधानमंत्री श्री लालकृष्ण आडवाणी ने चुनावों में बढ़ते खर्च के मद्देजनर लोकसभा चुनाव के साथ ही विधानसभाओं के चुनाव कराने का सुझाव दिया। श्री आडवाणी ने 2009 के लोकसभा चुनाव से पहले भी एक देश-एक चुनाव का सुझाव दिया। 2012 में उन्होंने तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी को पत्र भेजकर चुनाव सुधार के लिए कदम उठाने की अपील की थी। इस मुद्दे पर उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री डा.मनमोहन सिंह से भी चर्चा की थी। तब श्री सिंह ने इस मुद्दे पर सहमति जताई थी। श्री आडवाणी ने बार-बार होने वाले मध्यावधि चुनावों को लेकर भी लोकसभा और विधानसभाओं की अवधि तय करने का सुझाव भी दिया था। तब चुनाव आयोग या केंद्र सरकार ने इस सुझाव पर कोई ध्यान नहीं दिया। 2015 में ससंदीय समिति ने भी एक साथ चुनाव कराने के लिए अपनी रिपोर्ट में सिफारिश की है। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने भी देश की जनता के सामने यह सुझाव रखा और सभी राजनीतिक दलों से इस मुद्दे पर चर्चा करने का अनुरोध किया। डा.प्रणब मुखर्जी ने राष्ट्रपति रहते हुए कुछ अवसरों पर लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने पर सहमति जताई। राष्ट्रपति श्री रामनाथ कोविंद ने भी इस मुद्दे पर सहमति जताई। भाजपा अध्यक्ष श्री अमित शाह ने चुनावी खर्च में तेजी से हो रही बढ़ोतरी को लेकर भी एक साथ चुनाव कराने का सुझाव आगे बढ़ाया है। चुनाव में खर्चों में बढ़ोतरी को लेकर सभी दल इसमें कटौती करने के पक्ष में हैं। 1952 के लोकसभा और विधानसभाओं के चुनावों पर दस करोड़ खर्च हुए थे। 2014 के लोकसभा चुनाव पर ही सरकार ने 4500 करोड़ खर्च किए। एक अनुमान के अनुसार राजनीतिक दलों की तरफ से 30 हजार करोड़ खर्च करने का हिसाब लगाया गया है। 1999 से लेकर 2014 के आम चुनावों के दौरान 16 बार ऐसा हुआ है कि छह महीनों के भीतर ही विधानसभाओं के चुनाव हुए हैं।

मोदी सरकार के खिलाफ विपक्ष एकजुट होने की कोशिश में हैं। कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस, कम्युनिस्ट, तेलुगूदेशम पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, एआईएमआईएम और आम आदमी पार्टी एक राष्ट्र-एक चुनाव के पक्ष में नहीं है। कांग्रेस के साथ गठबंधन की बात करने वाली समाजवादी पार्टी ने एक साथ चुनाव कराने पर रजामंदी जताई है। तेलंगाना राष्ट्र समिति, अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और शिरोमणि अकाली दल भी एक साथ चुनाव कराने पर सहमत हैं। कुछ दल इस मसले पर संविधान संशोधन की जरूरत बता रहे हैं। भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ने वीवीपीएटी मशीनों की कमी के आधार पर एक साथ चुनाव कराने में असमर्थता जताई है। 1952 में हुए लोकसभा और विधानसभाओं के चनाव की तुलना में आज हमारे पास ज्यादा संसाधन हैं। देश में और राज्यों में कई गुणा सुरक्षा बल हैं। परिवहन के साधन बहुत बढ़े हैं। पहले के मुकाबले सूचना तेजी से दी जा सकती हैं। चुनावों पर नजर रखने के पूरे संसाधन हैं। कांग्रेस और कुछ दलों को लगता है कि एक साथ चुनाव हुए तो नरेंद्र मोदी का मुकाबला नहीं कर पाएंगे। मोदी के नाम पर राजग के दलों को राज्यों में लाभ हो सकता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक राष्ट्र-एक चुनाव का सुझाव देश की तेजी से विकास करने और चुनाव खर्च में कमी लाने के मकसद से की है। राजनीति के शिखर पुरुष पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल विहारी वाजपेयी ने 1996 में विश्वासमत के दौरान कहा था कि ‘सत्ता का खेल तो चलेगा..सरकारें आएंगी जाएंगी। पार्टियां बनेंगी बिगड़ेंगी। मगर ये देश रहना चाहिए। इस देश का लोकतंत्र अमर रहना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी भी इसी उदेश्य को लेकर आगे बढ़ रही है। चुनाव में जनता किसे चुनेगी, यह जनता का अधिकार है। हमारा कर्तव्य है कि हम देश को तेजी से तरक्की के रास्ते पर लाने के लिए एक राष्ट्र-एक चुनाव के सुझाव पर एकजुट हों।