धर्म प्रेम करना सिखाते हैं, कष्ट देना नहीं।
“पोथी पढ़ी पढ़ी जग मुआ, पंडित भया न कोय, ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।”
प्रेम विस्तार है, स्वार्थ संकुचन है। जीवन का सिद्धांत प्रेम है, वह जो प्रेम करता है, वही जीता है और वह जो स्वार्थी है मर रहा है। तो प्रेम के लिए प्रेम करो, आज के आपाधापी भरे जीवन में प्रेम के प्रभाव को समझना और प्रेम के भाव को जीवन में आत्मसात करना सुकूनकारी ही होगा।
प्रेम के प्रभाव को दो पौधों के प्रयोग से समझें। दो समान पौधे चुनकर लगावें, दोनों को खाद पानी एक सा देवें, एक पर ज्यादा ध्यान इस तरह दें कि उसको दुलरावें, पुचकारें, उससे थोडी देर बात करें, थोड़ी अपनी सुनायें, थोड़ी उसकी सुनें। कुछ समय बाद आप यह देख हैरान हो जाएंगे कि जिस वृक्ष की ओर ध्यान दिया है वह दुगुनी गति से बढ़ गया, जल्दी फूल आ गए, बड़े भी हो गए. जो उपेक्षित रहा वह कमजोर रह गया। यह हुआ दोनों को दिए गए प्रेम में फर्क के कारण । ऐसा है प्रेम का प्रभाव, वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा यह सब सिद्ध हो चुका है।
यही सत्य हमारे भीतरी भाव का, भीतरी प्रेम का है। जिस भाव को बढ़ाना है उस पर ध्यान दो। सभी धर्म भीतरी प्रेम ही सिखाते हैं। प्राणी मात्र से प्रेम करना सिखाते हैं, जहां अहम के लिए कोई जगह न होवे। ऐसा प्रेम दूसरों को सुख देता है, प्रेम में व्यक्ति अपने किसी काम से दूसरों को दुखी नहीं करता।
हमारे देश की संस्कृति सतरंगी है। भिन्न धर्म के लोग यहाँ धार्मिक परम्पराओं को प्रेम-पूर्वक मिल जुलकर पूरे जोश से मनाते हैं, दिन में लाउडस्पीकर का भरपूर उपयोग भी करते हैं। किसी को कोई कष्ट नहीं, पर यदि सुबह पांच बजे से ही विभिन्न धर्मावलम्बी अपने धर्म स्थल, या घर पर तेज आवाज में लाउड स्पीकर से कुछ भी बजाते हैं तो इसके व्यापक प्रभाव को भी समझना जरूरी है। कोई थक कर देर से सोया है, कोई बीमार है, बुजुर्ग को तकलीफ है, बच्चों की परीक्षाएं है, वे जल्दी उठकर पढ़ रहे हैं तो शायद इन्हें कोई तेज आवाज उस वक्त ठीक नहीं लगेगी। यानी ऐसे प्रसारण का प्रभाव सापेक्षिक होगा। किसी को वह सुहाएगा तो किसी के लिए वह कष्टकारी होगा।
धर्म कष्ट देना नहीं सिखाते। भगवान भी प्रेम से प्रसन्न होते हैं। चाहे किसी भी उद्देश्य से हो कम से कम देर रात में जोर की आवाज में ही अर्चना की जाए जरूरी नहीं। भक्ति और प्रेम अन्दर का मामला है, तो फिर बेवक्त बाहरी आडम्बर क्यों। धर्म में अहंकार भी बीच में नहीं आना चाहिए। अहम ही, हमारी अकड़ ही हमें सच्चाई से दूर करती है। जब कि धर्म सिखाते हैं, जहां तक हो सके हम सच को स्वीकारें। ऐसे में यदि कोई कष्टकारी सच है तो ऐसी असुविधाजनक परिपाटियों पर सभी धर्मावलम्बी कम से कम विचार, चर्चा करने की पहल करने में कोताही क्यों करें !