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Vishv bandhutv ka parv deepaavalee

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बंदनवार हार फूल से सजा संवरा हर घर,
बच्चे, जवान, बूढ़े सभी सजे धजे सुन्दर स्वरुप में उल्लसित,प्रसन्न,
रामजी, सीताजी, लक्ष्मण जी के दर्शन को सभी आकुल-व्याकुल, अधीर-आतुर।

सबका मनोरथ पूरा करने रामजी ने न केवल सबको दर्शन दिए अपितु आलौकिक ऐश्वर्य प्रकट कर जितने लोग उतने स्वरुप बनाए और सबके गले लगे। सबको अपने स्नेह से नहला कर कृतार्थ कर दिया और अपना बिरद, अपनी सहज सरलता के भी दर्शन करा दिए। अवसर था कार्तिक माह की अमावस्या का। वह दिन जब रामजी, सीताजी और लक्ष्मणजी चौदह वर्ष के वनवास के बाद अपनी अयोध्या नगरी में लौटे थे। उनके आगमन और रामजी के राज्यारोहण के अवसर को लेकर असीम प्रसन्नता में डूबे अयोध्या वासियों ने अपने घरों, गलियों और सम्पूर्ण नगरी को दीपमालाओं से जगमग कर दिया। और तब से अबतक हमारी यह ससमृद्ध धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा हमारे रक्त और संस्कार में रची बसी हुई है। अतः आज भी हम कार्तिक मास की उस शुभ अमावस्या के उपलक्ष्य में दिवाली का त्यौहार उसी उल्लास, प्रेम व भक्तिभाव से सुमधुर मिष्टान, जगमग दीपों और आतिशबाजी के साथ मानते है।

दीपावली के इस पावन अवसर पर सभी विश्व बंधुओं को बधाई, शुभकमनाएं। ज़रूरत है हम सहज-प्रेम-पूर्वक, अहंकार रहित विनम्रता से गणेशजी, लक्ष्मी-नारायणजी का आह्वान करें, पूजन करें। ईश्वर ज़रूर हमारे मनोनुकूल कृपा करेंगे। सतरंगी संस्कृति में रंग हमारे देश की विशेषता है, अनेकता में एकता। इसी के अनुकूल हमारे जैन बंधू और सिख भाई भी अपनी परंपरा को जोड़कर सबके साथ दिवाली मानते है। इनकी मान्यताएं दृष्टव्य है।

चौबीसवे तीर्थंकर भगवान् महावीर स्वामी का निर्वाण कार्तिक मास की अमावस्या को हुआ। उनके प्रमुख शिष्य गौतम स्वामीजी को इसका दुःख हुआ, पर अगले ही क्षण उन्हें सम्यक ज्ञान प्राप्त हुआ। तब सबने मिलकर इस रात को दियें जलाकर रोशनदार कर दिया। तभी से महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस पर वे दिवाली मानते है।

सिक्खों के छठे गुरु हर गोबिंद साहीब को मुग़ल शहंशाह जहाँगीर ने ग्वालियर के किले में कैद कर लिया था। बाबा बुढाजी के प्रयास से साईं मिया मिरजी ने गुरूजी को छुडाने का आदेश प्राप्त किया। गुरूजी ने अपनी मुक्ति से अन्य 52 कैदी राजाओं को भी अपने साथ मुक्त कराया। जब गुरूजी अमृतसर पहुँचे तब सभी ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया। श्री हरमिंदर साहिब में भी दिये जलाए गए। वह दिन कार्तिक मास की अमावस्या दिवाली का था। इस दिन को दिवाली त्यौहार के रूप में जोश, उल्लास, प्रेम से मनाया जाता है।

उल्लेखनीय है, एकसूत्र से बंधे हम गणेशजी, लक्ष्मीजी, माताजी की पूजा करते हैं, मिलजुल कर आनंद से दिवाली मानते हैं। हम उस सितार की तरह है जिसमे अलग अलग सुर के तार है, पर संतुलित अनुशासित तरीके से बजकर वह मधुर संगीत देती है। हम भी समता-रमरसता से मिलझुलकर मधुर जीवन संगीत का आनंद लेते हैं, और हमे अपना देश अपनी मातृभूमि स्वर्ग से भी ज्यादा सुन्दर लगती है। श्रीरामजी ने भी हमे यही सिखाया है। लंका विजय के अवसर पर उन्होंने अपने भाव लक्ष्मीजी के समक्ष प्रकट किए थे :-

अपि स्वर्णमय लंका न में रोचते लक्ष्मण।
जननि जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।।

( हे लक्ष्मण मुझे स्वर्ण लंका भी नहीं भाती है, अपनी मातृभूमि ही स्वर्ग से बढ़कर लगती है ।)