आतंक को क्या न्याय ?
गांधीजी ने कहा है – ‘‘ प्रत्येक वस्तु (या घटना) को कम से कम सात दृष्टि से देखा जा सकता है। और उस उस दृष्टि से वह वस्तु सच नजर आ सकती है। पर सब दृष्टियाँ एक ही समय और एक ही अवसर पर कभी सच नहीं होती।’’ इसी के साथ यह भी कहा जा सकता है कि घटना के वक्त जो सक्रिय उससे जुड़ा हो, जिसने उसकी अनुभूति की हो, वह सही होता है। जैसे आम खा लेने वाला उसके बारे में प्रामाणिकता से तथ्य कहता है।
मेरे व्यक्तिगत मतानुसार किसी भी घटना की सम्पूर्ण स्थिति को धैर्यपूर्वक, विवेक से समझने की जरुरत है। कारण कि व्यक्ति-व्यक्ति के प्रतीक और सोच समझ में फर्क है। कुछ केवल स्थूलता से स्थिति को बाह्य रुप में देखकर मत दे देते हैं, जो प्रायः भ्रामक होते हैं। जबकि संपूर्ण घटना के सच को सूक्ष्म दृष्टि से देखना, समझना जरुरी है।
जब अन्याय, अत्याचार, हिंसा व्यक्ति के स्वभाव का अंग बन जाते हैं, तो वह अनीति, अत्याचार उतने सहज भाव से करता हैं, जैसे कसाई नितांत ठंडेपन से कत्ल करता है। ऐसे पतितों का हिंसा के प्रति प्रेम हो जाता है, और उन्हें हिंसा में पाप की गंध नहीं आती। वे केवल हिंसा व अन्याय के मार्ग पर चल कर मनमानी पूर्वक सुख लेना चाहते हैं। यह चाहत उन्हें संवेदनहीन कर देती है। यानी उनका निषेधात्मक, नकारात्मक आचरण दूसरे मनुष्य को दुख देकर खुश होता है। ऐसे मनुष्य को हम क्या कहेंगे? राक्षस, आततायी !
हमारा मानव समाज और विवेकशील नागरिक ऐसे निरंकुश आतताइयों से अवश्य अपनी सुरक्षा चाहेगा। तब हमारा शासन-प्रशासन, यदि उचित सुरक्षा न दे पाए तो यह समाज के प्रति घोर अन्याय होगा। ऐसे में अपने समक्ष अकस्मात् आ खड़ी हुई परिस्थिति में न्यूनतम नुकसान की कीमत पर विध्वंस नियमन के जो त्वरित उपाय शासन कर सकता है, विवेक से वही करेगा, और करना ही चाहिये। ऐसे में, उस पर बिना बारीक जानकारी और समझ के दोषारोपण कर देना समझदारी तो नहीं ही कही जाएगी।
पुनष्च:- बरनि न जाई अनीति घोर निसाचर जो करहिं।
हिंसा पर अति प्रीति तिन्ह के पापहि कवनि मिति ।।
(राक्षस जैसे लोग जो घोर अनीति करते हैं उनके पापों का क्या ठिकाना? उनके अत्याचारों का क्या अंत ? ऐसे पापियों का क्या किया जाए?)