हिंदी पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर डॉ वेदप्रताप वैदिक जी का अवसान हिंदी जगत की पत्रकारिता के लिए एक अपूरणीय क्षति है। मानो हिंदी पत्रकारिता के एक युग का ही अंत हो गया है। डॉ. रामनोहर लोहिया के आदर्शाें पर चलते हुए पत्रकारिता करने वाले वेदप्रताप वैदिक जी ने हिंदी पत्रकारिता को वैश्विक पहचान दिलाई। उनका ये भागीरथी प्रयास अंत तक जारी था। हिंदी के प्रति उनका प्रेम तो महज 13 वर्ष की उम्र में ही दिखाई दिया था, जब उन्होंने हिंदी के लिए सत्याग्रह किया और जेलयात्रा भी की थी।
वैदिक जी को लेकर एक किस्सा यह भी मशहूर है कि वे जब जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से शोध कर रहे थे, तो उन्होंने अपना शोधपत्र हिंदी में ही लिखा था, जिसे विश्वविद्यालय ने ख़ारिज कर दिया था। वैदिक जी ने हार नहीं मानी और वे इस मामले को कोर्ट तक ले गए। वेदप्रताप वैदिक जी अफगानिस्तान के बारे में महती जानकारी रखते थे। यही वजह रही कि उन्हें अफगास्तिान में भी वो ही शोहरत हासिल थी, जो उन्हें अपने देश भारत में मिलती थी।
हिंदी पत्रकारिता की बात करें तो हिंदी पत्रकारिता में इंदौर का विशेष योगदान रहा है। हिंदी पत्रकारिता में इंदौर ने कई ऐसे मूर्धन्य पत्रकार दिए है जिन्होंने हिंदी पत्रकारिता को अपने कठिन परिश्रम और साधना से सींचा और संवारा है। जाने माने पत्रकार स्व. ओम नागपाल से वेदप्रताप वैदिक जी ने पत्रकारिता की गुर सीखे थे। इसी की परिणीति रही कि वे हिंदी पत्रकारित को उच्च शिखर तक लेकर गए।
वेदप्रताप वैदिक जी से जुड़े ऐसे कई किस्से हैं, जिन्हें याद करते ही उनके समर्पण और अपने कार्य प्रति उनकी लगन क्षमता का एहसास होता है। जब उनकी पत्नी का देहांत हुआ था तब उन्हें एक जरूरी आर्टिकल लिखना था। एक तरफ़ अर्द्धांगिनी की पार्थिव देह रखी थी, तो दूसरी तरफ़ अपने कर्तव्य का बोध उनके मानस में था। फिर क्या था वे कुछ क्षण के लिए किसी संत की भांति निर्माेही हुए और एक कमरे में जाकर अपने आर्टिकल को पूर्ण किया।
वेदप्रताप वैदिक जी न केवल हिंदी बल्कि अंग्रेजी, अरबी, फारसी के भी जानकार थे। बतौर पू्रफ रीडर अपनी पत्रकारिता शुरू करने वाले डॉ. वैदिक वर्ष 1971 से एक सक्रिय पत्रकार की भूमिका में आ गए थे। उनकी पत्रकारिता के तिरपेन वर्ष हिंदी पत्रकारिता में वैदिक स्वर्ण युग के नाम से जाने जाएंगे। उनका अवसान हिंदी पत्रकारिता की एक बहुत बड़ी क्षति है, जिसकी पूर्ति असंभव प्रतीत होती है।